आम तौर पर सभी दवाएं एक तरह का केमिकल सॉल्ट होती हैं। इन्हें शोध के बाद अलग-अलग बीमारियों के लिए बनाया जाता है। जेनेरिक दवा जिस सॉल्ट से बनी होती है, उसी के नाम से जानी जाती हैं। प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि परियोजना (पीएमबीजेपी) के अंतर्गत सरकार का उद्देश्य ब्रांडेड महंगे लोगों के स्थान पर गुणवत्ता वाले जेनेरिक दवाइयां प्रदान करना है।
देशवासियों में जेनरिक दवाओं के प्रति जागरूकता और विश्वास पैदा करने के उद्देश्य से 7 मार्च को देश भर में जन औषधि दिवस मनाया जाता है। यह दिन प्रधानमंत्री भारतीय जनऔषधि परियोजना की उपलब्धियों को मनाने का भी दिन है। केंद्र सरकार द्वारा नवंबर 2016 को घोषित प्रधानमंत्री जनऔषधि परियोजना में सरकार द्वारा उच्च गुणवत्ता वाली जेनरिक दवाइयां बाजार मूल्य 50 से 80 प्रतिशत तक कम कीमत पर उपलब्ध कराई जाती है।
इसके लिए सरकार द्वारा देश भर में अब तक 15000 से ज्यादा ‘जन औषधि केंद्र ’ खोले गए हैं, जहां 2047 प्रकार की जेनरिक दवाइयां और 300 से अधिक सर्जिकल उत्पाद उपलब्ध कराई जाती हैं।
पिछले काफी समय से जेनरिक या ब्रांडेड दवाओं पर बहस छिड़ी है।
पिछले साल नेशनल मेडिकल कमीशन ने एक नियम लागू किया था। इसमें कहा गया था कि डॉक्टरों को जेनेरिक दवाएं भी लिखनी होगी। नियम न मानने पर कानूनी कार्रवाई की जाएगी। एनएमसी के इस फैसले के बाद इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने इस नियम पर सवाल खड़े किए थे।
कई डॉक्टर एसोसिएशन ने भी नए कानून का विरोध कर इसको वापिस लेने की मांग की थी। तर्क यह दिया गया था कि ब्रांडेड दवा न लिखने से मरीजों को नुकसान हो सकता है। विरोध के बाद एनएमसी से अपना फैसला वापिस ले लिया था। सरकार मरीजों को सस्ती दवाएं उपलब्ध करवाने के लिए कानून में संशोधन की तैयारी कर रही है।
इसके बाद डॉक्टर्स को मरीजों के लिए सिर्फ जेनेरिक दवा लिखनी होंगी, न कि किसी विशेष ब्रांड या कंपनी की। इसके बाद भी मरीजों को सस्ती दवाएं मिलने लगेंगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है, क्योंकि जेनेरिक दवाओं के चलन से बड़ी फार्मा कंपनियों को सीधे नुकसान होगा।
जेनेरिक दवाएं क्या होती है?
आम तौर पर सभी दवाएं एक तरह का “केमिकल सॉल्ट” होती हैं। इन्हें शोध के बाद अलग-अलग बीमारियों के लिए बनाया जाता है। जेनेरिक दवा जिस सॉल्ट से बनी होती है, उसी के नाम से जानी जाती है। जैसे- दर्द और बुखार में काम आने वाले पैरासिटामोल सॉल्ट को कोई कंपनी इसी नाम से बेचे तो उसे जेनेरिक दवा कहेंगे। वहीं, जब इसे किसी ब्रांड (जैसे- क्रोसिन) के नाम से बेचा जाता है तो यह उस कंपनी की ब्रांडेड दवा कहलाती है।
जेनेरिक दवाइयां या ब्रांडेड दवाइयों में कोई फर्क नहीं होता यह दोनों एक जैसे ही काम करती हैं फर्क सिर्फ इतना है कि ब्रांडेड दवाइयां महंगी होती है क्योंकि उन पर दवा कंपनियों द्वारा मार्केटिंग करने का खर्च शामिल होता है इसलिए वह महंगी होती है इसके अलावा उनका रिसर्च एंड डेवलपमेंट का खर्च भी शामिल होता है बल्कि जो जेनेरिक दवाइयां हैं उनमें दवा कंपनियों का सिर्फ बनाने का खर्चा होता है इसलिए वह सस्ती होती हैं।
ब्रांडेड दवाई और जेनेरिक दवाई में साल्ट एक ही होता है । उसी सॉल्ट की दवाई जेनेरिक दवाई में मिलती है।
ब्रांडेड दवाई महंगी होतीं हैं क्योंकि ब्रांडेड दवाई के सॉल्ट का अविष्कार किसी कंपनी द्वारा किया जाता है। जो उसके मूल्य में उसमें अविष्कार का खर्च, उसकी मार्केटिंग का खर्च, डॉक्टरों में दवाई का प्रचार करने का खर्च और उसके अलावा उस दवाई को बनाने के लिए जो उन्होंने पूंजी लगाई उसका ब्याज जुड़ा होता है। इसके अलावा दवाई के मूल्य में अत्यधिक लाभ भी जोड़ा जाता है। इन सबको मिलाने से दवाई का दाम काफी ज्यादा हो जाता है।
दवाओं का पेटेंट
जिस दवाई का आविष्कार जिस कंपनी ने किया होता है उसे उस दवाई का पेटेंट मिल जाता है। लेकिन 10 साल के बाद उसका दवाई का पेटेंट यानी अकेले दवाई बनाने का अधिकार खत्म हो जाता है। अब उसे कोई भी बनाकर बेंच सकता है ऐसे में छोटी छोटी कंपनियां उसका एक मॉलिक्यूल थोड़ा सा बदल के जेनेरिक के रूप में पेश कर देती हैं, जिसका मूल्य ब्रांडेड मूल्य के 20% तक होता है। यानी ब्रांडेड दवाई का मूल्य जेनेरिक दवा के मूल्य से 4 या 5 गुना और 10 गुना तक महंगी होती है।
दरअसल, फार्मा कंपनियां ब्रांडेड दवाइयों की रिसर्च, पेटेंट और विज्ञापन पर काफी पैसा खर्च करतीं हैं। जबकि जेनेरिक दवाइयों की कीमत सरकार तय करती है और इसके प्रचार-प्रसार पर ज्यादा खर्च भी नहीं होता।
गंभीर बीमारियों के पेटेंट बड़ी कंपनियों के पास
कई जानलेवा बीमारियों जैसे एचआईवी, लंग कैंसर, लीवर कैंसर जैसी बीमारियों में काम आने वाली दवाओं के ज्यादातर पेटेंट बड़ी-बड़ी कंपनियों के पास हैं। वे इन्हें अलग-अलग ब्रांड से बेचती हैं। अगर यही दवा जेनेरिक में उपलब्ध हो तो इलाज पर खर्च 200 गुना तक घट सकता है।
जैसे- एचआईवी की दवा टेनोफिविर या एफाविरेज की ब्रांडेड दवा का खर्च 2,500 डॉलर यानी करीब 1 लाख 75 हजार रुपये है, जबकि जेनरिक दवा में यही खर्च 12 डॉलर यानी महज 840 रुपये महीने तक हो सकता है। हालांकि, इन बीमारियों का इलाज ज्यादातर सुपर स्पेशियलिटी अस्पतालों में होता है। ऐसे में ये दवाएं इन अस्पतालों में या वहां के केमिस्ट के पास ही मिल पाती हैं।
नोवार्टिस की कैंसर की दवा ग्लीवियो- इमेटिनिब मिसाइलेट का एक महीने का खर्च 2,158 डॉलर यानी करीब 1.51 लाख रूपए पड़ता है, जबकि जेनरिक रूप में इसी दवा का खर्च 174 डॉलर प्रति माह (12,180 रूपए) है, यानी 12 गुना या 92% से भी कम। – ऐसे ही बेयर की कैंसर ड्रग सोराफेनिब टोसाइलेट, जिसे वह नेक्सावर के नाम से बेचती है, उसका एक महीने का खर्च करीब 5,030 डॉलर है, जबकि जेनरिक दवा लेने पर यही खर्च महज 122 डॉलर प्रति माह रह जाता है।
फार्मा सेक्टर में भारत की मजबूत स्थिति
देश में फार्मा इंडस्ट्री 1.20 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की है और इसकी सालाना ग्रोथ 11% है। देश में सालाना करीब 1.27 लाख करोड़ की दवाएं बेची जाती हैं, इसमें 75% से ज्यादा हिस्सा जेनरिक दवाओं का है। भारत सस्ती यानी जेनरिक दवाइयों का सबसे बड़ा एक्सपोर्टर है। दुनिया भर की डिमांड की 20% दवाइयां भारत सप्लाई करता है। अमेरिका में 40% और यूके में 25% दवाइयां भारत सप्लाई करता है।
2018-19 में देश से 1,920 करोड़ डॉलर की दवाइयां एक्सपोर्ट की गईं। इसमें पिछले वित्त वर्ष की तुलना में 11% की बढ़ोतरी हुई। भारत से कुल एक्सपोर्ट की 30% दवा अमेरिका, 19% अफ्रीका और 16% दवा यूरोपीय देशों में एक्सपोर्ट की गई। दुनियाभर में कुल वैक्सिन डिमांड का 50% भारत से सप्लाई होता है। इनके अलावा दक्षिण अफ्रीका, रूस, ब्राजील, नाइजीरिया और जर्मनी में भी भारतीय दवाएं एक्सपोर्ट की गईं।
क्या जेनेरिक दवाएं कम असरदार होती हैं?
यह सबसे बड़ा मिथक है कि जेनेरिक दवाएं कम प्रभावी होती हैं। वास्तव में, जेनेरिक दवाओं की प्रभावशीलता, सुरक्षा और गुणवत्ता की जांच सरकारी संस्थाएं (भारत में सीडीएससीओ, अमेरिका में यूएस एफडीए) करती हैं। इनकी निर्माण प्रक्रिया और प्रभाव ब्रांडेड दवाओं के समान ही होते हैं।
कई लोगों को यह गलतफहमी होती है कि सस्ती दवा का असर भी कम होगा, लेकिन जेनेरिक दवा इसलिए सस्ती होती है क्योंकि इन पर नई रिसर्च और डेवलपमेंट का खर्च नहीं आता। इन्हें विज्ञापन और मार्केटिंग की जरूरत नहीं होती। कई कंपनियां एक ही दवा बनाती हैं, जिससे प्रतिस्पर्धा बढ़ती है और कीमतें कम रहती हैं। सरकारें भी जेनेरिक दवाओं को बढ़ावा देती हैं ताकि आम जनता तक सस्ती और असरदार दवा पहुंच सके।
इलाज और महंगी दवाइयां
एक अनुमान के मुताबिक, किसी भी मरीज के इलाज के दौरान होने वाले खर्च का 70% अकेले दवाओं पर खर्च हो जाता है। सरकार ने पिछले महीने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया कि इलाज और दवा पर होने वाले खर्च की वजह से देश में हर साल 3 करोड़ 8 लाख लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं।
फिलहाल सरकार की आयुष्मान भारत योजना से नि:शुल्क इलाज और जनऔषधि केंद्रों के माध्यम से सस्ती जेनेरिक दवाओं का मिलना लोगों के लिए राहत की बात है। आयुष्मान भारत योजना का दायरा देश की अधिसंख्य आबादी तक बढ़ाने की जरूरत है साथ ही जेनेरिक दवाओं को गांव, कस्बे तक जागरूकता के साथ पहुंचाने की जरूरत है ।
जेनेरिक दवाओं का प्रोत्साहन
प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि परियोजना (पीएमबीजेपी) के अंतर्गत सरकार का उद्देश्य ब्रांडेड महंगे लोगों के स्थान पर गुणवत्ता वाले जेनेरिक दवाइयां प्रदान करना है। सरकार के प्रयास के बावजूद अभी भी देश में बड़े पैमाने पर जेनेरिक दवाओं का प्रयोग नहीं हो पा रहा है। अब समय आ गया है जब सामुदायिक स्तर पर जेनेरिक दवाओं को प्रोत्साहित किया जाएं।
प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि परियोजना में लोगों को लाभ पहुचाने के लिए और जेनेरिक दवाओं के उपयोग के बारे में जागरूकता के लिए सरकार विभिन्न माध्यमों से प्रयास कर रही है लेकिन इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर समाज के स्तर पर प्रयास जरूरी है ।
देश में बढ़ती मंहगाई के दौर में लोगों को सस्ती और गुणवत्तापरक दवाइयों के जरिए स्वास्थ्य सुरक्षा उपलब्ध कराना बहुत जरूरी है। क्योंकि देश में आमजन की जेब पर चिकित्सा खर्चे और महंगी दवाओं को बोझ बड़े पैमाने पर पड़ता है।
महंगी चिकित्सा आमजन की आर्थिक स्तिथि को पूरी तरह से बिगाड़ देती है ऐसे में अब समय आ गया है जब सभी को जेनेरिक दवाओं के माध्यम से सस्ती दवाएं मुहैया कराइ जाएं।