दिल्ली : विश्वको सनातन धर्मकी एक अनमोल देन है ‘गुरु-शिष्य परंपरा’ – संत गुलाबराव महाराजजीसे किसी पश्चिमी व्यक्तिने पूछा, ‘भारतकी ऐसी कौनसी विशेषता है, जो न्यूनतम शब्दोंमें बताई जा सकती है ?’ तब महाराजजीने कहा, ‘गुरु-शिष्य परंपरा’ । इससे हमें इस परंपराका महत्त्व समझमें आता है ।

ऐसी परंपराका दर्शन करवानेवाला पर्व है, गुरुपूर्णिमा ! माया के भवसागर से शिष्य को एवं भक्तों को बाहर निकालनेवाले, उनसे आवश्यक साधना करवा कर लेनेवाले एवं कठिन समय में उनको अत्यंत निकटता एवं निरपेक्ष प्रेम से सहारा देकर संकट मुक्त करने वाले गुरु ही होते हैं ।

ऐसे परम पूजनीय गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन है गुरुपूर्णिमा । प्रस्तुत लेख में हम गुरुमहिमा, गुरुपूर्णिमा का महत्व तथा यह उत्सव मनाने की पद्धति जानेंगे ।

गुरुपूर्णिमा मनाने की तिथि एवं उद्देश्य :

गुरुपूर्णिमा यह उत्सव सभी जगह आषाढ़ माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस वर्ष गुरुपूर्णिमा 21 जुलाई को है । प्रस्तुत लेख से गुरुपूर्णिमा का महत्व जानकर उसके अनुसार कृति करने का प्रयास करेंगे और गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करेंगे। गुरु अर्थात ईश्वर का सगुण रूप !

वर्ष भर गुरु अपने भक्तों को अध्यात्म का ज्ञान देते हैं । इसलिए गुरु के प्रति अनन्य भाव से कृतज्ञता व्यक्त करना, यही गुरुपूर्णिमा मनाने का उद्देश्य है ।

गुरुमहिमा : वर्तमान में अधिकांश लोगों का दैनिक जीवन भागदौड़ तथा समस्याओं से ग्रसित है । जीवन में मानसिक शांति एवं आनंद प्राप्त करने के लिए कौन-सी साधना, कैसे करें, इसका जो यथार्थ ज्ञान कराते हैं, वे हैं गुरु ! गुरुका ध्यान शिष्यके भौतिक सुखकी ओर नहीं, अपितु केवल उसकी आध्यात्मिक उन्नतिपर होता है ।

गुरु ही शिष्यको साधना करनेके लिए प्रेरित करते हैं, चरण दर चरण साधना करवाते हैं, साधनामें उत्पन्न होनेवाली बाधाओंको दूर कर साधनामें टिकाए रखते हैं एवं पूर्णत्वकी ओर ले जाते हैं । गुरुके संकल्पके बिना इतना बडा एवं कठिन शिवधनुष उठा पाना असंभव है; परन्तु गुरुकी प्राप्ति हो जाए, तो यह कर पाना सुलभ हो जाता है । श्री गुरुगीतामें ‘गुरु’ संज्ञाकी उत्पत्तिका वर्णन इस प्रकार किया गया है।